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haritalika teej puja 2020 :हरितालिका तीज पूजा 2020

Haritalika teej katha 2020 :हरितालिका तीज 2020
हर साल भाद्रपद माष के शुक्लपक्ष के तीसरे दिन हरितालिका तीज की पूजा होती है, मान्यताये है की माँ पार्वती ने कठोर तप से भगवान शंकर को प्रसन्न किया तथा उनको पति रूप मे वर माँगा, माँ पार्वती की निष्ठां देख भगवान शंकर ने उन्हें मनोवांछित फल का वरदान दिया,, जिसके उपरांत भगवान शंकर और माँ पार्वती विवाह सूत्र मे बंध गए,,, 

माँ पार्वती की स्मरणीय गाथा द्वारा इस व्रत का उल्लेख किया गया है,, जिसके अनुसार कोई भी कुंवारी कन्या इस व्रत को कर के मनचाहा जीवनसाथी प्राप्त कर सकती है, तथा सुहागिने अपने सुहाग की लम्बी आयु और सुख समृद्धि के लिए यह व्रत करती है, इस व्रत मे सरगही खा कर, उपवास करती है, तथा संध्या सुहागिने सोलह श्रृंगार करके भगवान शंकर और माँ पार्वती की रेत से बनी प्रतिमा की पूजा कथा व आरती करती है ।

Haritalika teej puja shubh muhurt :हरितालिका तीज पूजा शुभ मुहूर्त 

हरितालिका तीज पूजा इस साल 21 अगस्त को मनाई जाएगी ।

हरीतालिका पूजा शुभ मुहूर्त - शाम 6 बजकर 54 मिन्ट्स से लेकर रात 9 बजकर 6 मिनट तक ।


Haritalika puja widhi, tatha niyam :हरितालिका पूजन विधि तथा नियम 

* इस दिन अपने हाथो से शिव परिवार की रेत अथवा काली मिट्टी से प्रतिमा बनाई जाती है ।

* पूजन से पहले चौकी को केले के पत्ते तथा पुष्प से मंडप की तरह सजाया जाता है ।

*प्रतिमा को मंडप मे विराजित कर, प्रदोषकाल मे अर्थात संध्या के समय पुरे मंत्रों पचार से पूजन करनी चाहिए ।

*सबसे पहले गणेश जी की पूजा विधिवत होती है उसके बाद भगवान शंकर और माता पार्वती की ।

* माँ पार्वती को सारी सुहाग की सारी वस्तुये दान किये जाते है ।

* पूजन को बिच मे छोड़कर उठना नहीं चाहिए, एवं पुरे विधि विधान से पूजन करनी चाहिए तथा हरितालिका कथा का श्रवण करना चाहिए ।

*पूजन के बाद आरती कर भजन कीर्तन करना चाहिए, तथा रात्रि जागरण करना आवश्यक होता है ।


हरितालिका तीज कथा : haritalika teej katha 

भगवान शंकर और माँ गौरी कैलाश पर्वत पर बैठे हुए थे तभी अचानक भगवान शिव ने कहा “हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इस अवधि में तुमने अन्न ना खाकर केवल हवा का ही सेवन के साथ तुमने सूखे पत्ते चबाकर काटी थी।

माघ की शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश कर तप किया था। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में पंचाग्नी से शरीर को तपाया। श्रावण की मुसलाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न जल ग्रहन किये व्यतीत किया। 

तुम्हारी इस कष्टदायक तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दुःखी और नाराज़ होते थे। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या और पिता की नाराज़गी को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे।

तुम्हारे पिता द्वारा आने का कारण पूछने पर नारदजी बोले – ‘हे गिरिराज! मैं भगवान् विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ। आपकी कन्या की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर वह उससे विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ।’ नारदजी की बात सुनकर पर्वतराज अति प्रसन्नता के साथ बोले- ‘श्रीमान! यदि स्वंय विष्णुजी मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर कि लक्ष्मी बने।’

नारदजी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णुजी के पास गए और उन्हें विवाह तय होने का समाचार सुनाया। परंतु जब तुम्हे इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हारे दुःख का ठिकाना ना रहा। 

तुम्हे इस प्रकार से दुःखी देखकर, तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछने पर तुमने बताया कि – ‘मैंने सच्चे मन से भगवान् शिव का वरण किया है, किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है। मैं विचित्र धर्मसंकट में हूँ। अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा।’ तुम्हारी सखी बहुत ही समझदार थी। 

उसने कहा – ‘प्राण छोड़ने का यहाँ कारण ही क्या है? संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिये। भारतीय नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वरण कर लिया, जीवनपर्यन्त उसी से निर्वाह करे। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो भगवान् भी असहाय हैं। 

मैं तुम्हे घनघोर वन में ले चलती हूँ जो साधना थल भी है और जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हे खोज भी नहीं पायेंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।’

तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हे घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए। वह सोचने लगे कि मैंने तो विष्णुजी से अपनी पुत्री का विवाह तय कर दिया है। यदि भगवान् विष्णु बारात लेकर आ गये और कन्या घर पर नहीं मिली तो बहुत अपमान होगा, ऐसा विचार कर पर्वतराज ने चारों ओर तुम्हारी खोज शुरू करवा दी। 

इधर तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगीं। भाद्रपद तृतीय शुक्ल को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग तथा मंडप का निर्माण किया। सुन्दर सुन्दर फूलो से मंडप को सुसज्जित किया, रात भर अपने सखियों मेरी पूजा आरती की एवं मेरी स्तुति में गीत गाकर जागरण किया। 

तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँचा और तुमसे वर मांगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा – ‘मैं आपको सच्चे मन से पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिये। ‘तब ‘तथास्तु’ कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया।

प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित करके अपनी सखी सहित व्रत का वरण किया। उसी समय गिरिराज अपने बंधु – बांधवों के साथ तुम्हे खोजते हुए वहाँ पहुंचे। तुम्हारी दशा देखकर अत्यंत दुःखी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण पुछा। तब तुमने कहा – ‘पिताजी, मैंने अपने जीवन का अधिकांश वक़्त कठोर तपस्या में बिताया है। 

मेरी इस तपस्या के केवल उद्देश्य महादेवजी को पति के रूप में प्राप्त करना था। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूँ। चुंकि आप मेरा विवाह विष्णुजी से करने का निश्चय कर चुके थे, इसलिये मैं अपने आराध्य की तलाश में घर से चली गयी। 

अब मैं आपके साथ घर इसी शर्त पर चलूंगी कि आप मेरा विवाह महादेवजी के साथ ही करेंगे। पर्वतराज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार करली और तुम्हे घर वापस ले गये। कुछ समय बाद उन्होने पूरे विधि – विधान के साथ हमारा विवाह किया।”

भगवान् शिव ने आगे कहा – “हे पार्वती! भाद्र पद कि शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका। 

इस व्रत का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मन वांछित फल देता हूँ।” भगवान् शिव ने पार्वतीजी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा।

इस व्रत को ‘हरितालिका’ इसलिये कहा जाता है क्योंकि पार्वती कि सखी उन्हें पिता और प्रदेश से हर कर जंगल में ले गयी थी। ‘हरित’ अर्थात हरण करना और ‘तालिका’ अर्थात सखी होता है ।
इसके बाद आरती गाकर हरितालिका पूजा का समापन होता है..... 


अपनी पूजा और व्रत को सफल बनाने हेतु माँ पार्वती से विशेष प्राथना करना चाहिए ।

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